गोपेश्वर। यदि अभी से संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र के पर्यावरण को केंद्र में रखकर कोई ठोस और दीर्घकालिक नीति नहीं बनाई गई, तो इसके गंभीर दुष्परिणाम भविष्य में सामने आ सकते हैं। यह बात वनाग्नि और मानव–वन्यजीव संघर्ष के विषय को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में पहुंचे एक शोध दल के प्रत्यक्ष संवाद के दौरान उभरकर सामने आई। इस दौरान वन्यजीवों द्वारा मानव क्षति की बढ़ती घटनाओं को लेकर ग्रामीणों में भारी आक्रोश और भय का माहौल भी देखने को मिला।
शोध दल के प्रमुख ओम प्रकाश भट्ट ने बताया कि उनका संस्थान पिछले आठ वर्षों से वनाग्नि की रोकथाम को लेकर विभिन्न चरणों में जन-जागरूकता और अध्ययन अभियान चला रहा है। इन अभियानों के तहत ग्रामीणों से प्रत्यक्ष संवाद कर वन, पर्यावरण और जैव विविधता संरक्षण पर चर्चा की जाती है।
उन्होंने बताया कि इन आठ वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों में लोगों से बातचीत के दौरान लगभग हर जगह एक समान निष्कर्ष सामने आया है—लगातार लगने वाली जंगलों की आग, बदलती ग्रामीण जीवन शैली,वन क्षेत्रों में अतिक्रमण आदि कारणों ने वन्यजीवों को धीरे-धीरे बस्तियों की ओर आने के लिए मजबूर किया है। यदि अभी इस विषय पर जल्दी कुछ नहीं किया गया तो यह समस्या किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि पूरे हिमालयी क्षेत्र में व्यापक रूप से फैलने वाली है।
उन्होंने बताया कि पहले जहाँ ग्रामीण केवल बंदर, लंगूर और जंगली सूअर से परेशान थे, वहीं अब भालू और गुलदार की बढ़ती आक्रामकता ने आम जनजीवन में भय और असुरक्षा का वातावरण पैदा कर दिया है। मानव–वन्यजीव संघर्ष का यह सिलसिला अब किसी एक घटना या क्षेत्र तक सीमित नहीं रह गया है।
ग्रामीण यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि निरंतर वनाग्नि के कारण जंगलों में वन्यजीवों के प्राकृतिक आहार में भारी कमी आई है, जिसके चलते वे भोजन की तलाश में बस्तियों की ओर बढ़ रहे हैं। गहराई से देखें तो यह संघर्ष केवल मानव और वन्यजीवों के बीच टकराव नहीं, बल्कि हमारी नीतिगत विफलताओं और पर्यावरणीय उपेक्षा का परिणाम है।
वन, जन और जीव—तीनों प्रकृति के ताने-बाने के अनिवार्य घटक हैं। यदि यह संतुलन टूटता है, तो उसका असर केवल वन्यजीवों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि मानव अस्तित्व पर भी गहरा संकट खड़ा कर सकता है।
शोध दल के सदस्य मंगला कोठियाल ने बताया कि हाल के दिनों में भालू के हमलों की बढ़ती घटनाओं के कारण ग्रामीणों में यह भ्रांति भी फैल गई है कि वन विभाग द्वारा जानबूझकर पहले बंदरों को और अब गुलदार तथा भालुओं को अन्य क्षेत्रों से लाकर पहाड़ों में छोड़ा जा रहा है।
जब इस विषय पर ग्रामीणों से विस्तार से बातचीत की गई, तो उन्होंने बताया कि पहले बंदर इंसान को देखकर भाग जाते थे, लेकिन अब बिना डरे हमला करने लगे हैं। इसी तरह भालू पहले जंगलों तक सीमित रहते थे और यदा-कदा ही हमलावर होते थे, जबकि अब उनकी उपस्थिति और हमले लगातार बढ़ रहे हैं।
ग्रामीणों में दहशत का आलम यह है कि अब यदि दूर से भी गुलदार दिखाई दे जाए, तो पूरे क्षेत्र में भय का माहौल बन जाता है, जबकि पहले इसे सामान्य घटना माना जाता था।
शोध दल के समन्वयक एवं चिपको आंदोलन की मातृ संस्था के मंत्री ने कहा कि वर्तमान स्थिति में जन और जीव आमने-सामने खड़े हैं, और दोनों के लिए अनिवार्य वन स्वयं अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है।
आज पहाड़ों में जंगली सूअर द्वारा फसलों की व्यापक क्षति, बंदरों और लंगूरों का बढ़ता आतंक, तथा भालू और गुलदार की आक्रामकता ने मानव–वन्यजीव संघर्ष को और अधिक जटिल बना दिया है। इसके परिणामस्वरूप यह समस्या अब एक गंभीर सामाजिक–पर्यावरणीय संकट का रूप लेने लगी है।
पर्यावरणीय दृष्टि से यह स्थिति केवल तात्कालिक संकट नहीं, बल्कि संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र में गहरे असंतुलन की ओर संकेत कर रही है। प्राकृतिक आवासों में हो रहे निरंतर बदलाव, भोजन की कमी और मानव अतिक्रमण ने वन्यजीवों को बस्तियों की ओर आने को विवश किया है, जहाँ आमने-सामने की स्थिति में मानव प्रायः असुरक्षित सिद्ध हो रहा है।
यदि अभी से ग्रामीणों को साथ लेकर, वनाग्नि रोकथाम, आवास संरक्षण और वैज्ञानिक अध्ययन आधारित दीर्घकालिक नीति पर गंभीरता से अमल नहीं किया गया, तो भविष्य में यह समस्या और अधिक विकराल रूप ले सकती है, जिससे पार पाना संभव नहीं होगा।
तीन दिवसीय यात्रा के अंतिम दिन दल ने झुमाखेत उतरी, झुमखेत मल्ली,नैल के ग्रामीणों से संवाद किया।यात्रा का समापन खंसर क्षेत्र के दूरस्थ गाँव देवपुरी में महिपाल सिंह कंडारी क्षेत्र पंचायत की अध्यक्षता में संपन्न हुआ।
यात्रा में केदारनाथ वन्यजीव प्रभाग के वन दरोगा सतीश कुमार, मोहित शुक्ला, खड़क सिंह मुन्नी बिष्ट, गैरसैंण फायर सर्विस के प्रभारी शौकीन सिंह रमोला, धर्मेंद्र कंडारी, फायर मैन योगेश सिंह सहित चतुर सिंह चतुरा पूर्व छात्र नेता सहित कई लोग मौजूद थे

