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हिमालय की दुर्दशा : हिमालय के अस्तित्व को खतरा

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हिमालय की दुर्दशा : हिमालय के अस्तित्व को खतरा

स्वतंत्र पत्रकार जगत सागर बिष्ट
हिमालय पर्वत जो देश ही नहीं पूरी दुनिया की शान है। जो पूरे विश्व का मौसम संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता हो, वही मानस की विकासवादी व विभिन्न देशों की विस्तावादी सोच ने हिमालय के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। हिमालय के अस्तित्व को खो देना, शायद ही किसी भारतीय को अच्छा लगेगा, किन्तु हकीकत यह है कि जिस तरह से पर्यावरण को पूरे विश्व में मानस स्वयं असन्तुलित कर रहा है यह बात तो इससे वैज्ञानिकों की चेतावनी जो 2025 से 2030 तक हिमालय में सिर्फ नंगे पहाड़ नजर आयेंगे सच साबित हो जायेगी।

इसी मिशन को लेकर 13 मई 2006 को टिहरी से एक तीन सदस्यीय दल सोसाईटी फाॅर श्रृंगार हिमालय ने जन जागरूकता व उत्तराखण्ड नये प्रदेश बनने के बाद उसकी सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, राजनीतिक, संस्कृतिक विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के साथ एक सप्ताह तक सर्वे किया था, जिसमें पाया कि हिमालयन ग्लेशियर जो माणा गांव तक फैले थे। स्थानीय लोगों को ठंड बर्फबारी के समय माणा गांव को छोड़ना पड़ता था। जहां साल भर 4 से 5 फीट बर्फ पड़ी रहती थी वहां से ग्लेशियर 40 किलोमीटर पीछे चले गये थे। 20 साल पहले बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री जाते समय जहां बड़े-ंबड़े ग्लेशियर देखे जाते थे वहीं आज नंगें पहाड़ देखे जा रहे हैं।

सर्वेक्षण दल ने पाया था कि जिस मानस को प्रकृति के सरंक्षण की जिम्मेदारी थी वही मानस प्रकृति का अस्तित्व समाप्त कर रहा है। आज मानव द्वारा जिस कारण जंगलों का अवैध पातन, वृक्षारोपण मात्र कागजों फोटो खिंचने तक सीमित रह गया है। सड़क निर्माण के लिए भारत तिब्बत बार्डर पर भारी विस्फोटों का प्रयोग करना तथा बड़ी-बड़ी मशीनों का उपयोग करता तथा एक देश दूसरे देश पर शक्ति परीक्षण के नाम पर सीमाओं पर बड़े-बड़े धमाके करता इसका मुख्य कारण है।

सर्वेक्षण दल में सोसाईटी के तत्कालीन सचिव व स्वतंत्र पत्रकार जगत सागर बिष्ट, राजू राज व दीपक शामिल थे। सर्वेक्षण दल ने पाया कि मानस की विकासवादी सोच ने प्रदेश को उर्जा प्रदेश बनाए जाने के लिए भारी मात्रा में जंगलों को बड़ी परियोजनाओं की भेंट चढ़ा दिया है। विस्फोट के कारण 80 प्रतिशत जल स्रोत सूख चुके हैं हिमालय क्षेत्रों में सिंचाई की खेती समाप्त हो गयी है, सरकार द्वारा लगाये गये हैंडपम्प 60 प्रतिशत सूख गये हैं। मानस की इस विकासवादी व विभिन्न देशों की विस्तारवादी नीति से सम्पूर्ण विश्व में आज उथल-पुथल मची है जिन देशो का तापमान 35 डिग्री सेन्टीग्रेट होता था वहां का तापमान 45 से 50 डिग्री तक पहुंच गया जहां लोग बारिश के लिए तड़फते थे वहीं बरसात ने तबाही मचा दी है।

तापमान के कारण जंगलों में आग लग गयी है हजारों लोगों को सरकारों द्वारा दूसरे स्थानों में विस्थापन करने पर मजबूर होना पड़ा है। मौसम परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया में हलचल मची है। चर्चाओं का दौर चल रहा है। बड़े-बड़े सेमिनारों में करोड़ों रूपए खर्च किया जा रहा है लेकिन धरातल में कोई सरकार कार्य करने को तैयार नहीं है। हिमालय में मानस विकास व विभिन्न देशों की विस्तारवादी सोच का प्रभाव दिखने लगा है भारत दुनिया के उन देशों में शामिल हो गया है जहां व्यापक जैव विविधतायें हैं।

उच्च हिमालय क्षेत्रों में पर्यावतरण व जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के 50 से भी अधिक ग्लेशियर थे जो आज सिकुड़ गये हैं या समाप्त हो गये हैं। जिससे हिमालय क्षेत्र की वनस्पतियों व वहां रहने वाले जीव जन्तुओं, दोनों के साथ -साथ निचले हिमालय क्षेत्रों में उगने वाली फसल व औषधीय पौधों पर पड़ने लगा है जिसका असर स्थानीय लोगों पर पड़ने लगा है।

हिमालय क्षेत्र के गांवों में पानी प्राण वायु व अन्न की कमी को देखने को मिलने लगी है। हिमालय पर आने वाले हर संभावित खतरे को भांप कर उसे समय रहते दूर करना मानस की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। क्योंकि अगर हिमालय में भविष्य में कोई खतरा आता है तो भारत के साथ चीन, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, म्यामांर आदि देशों को भी भंयकर खतरा होने की सम्भावना है। इसलिए सभी देशों की सरकारों व वहां रहने वाले मानस को भी हिमालय की विरासता उसके सौन्दर्य और उसकी आध्यात्मिकता को बरकरार रखना अति आवश्यक हो गया है।

पूरे विश्व की हिमालय की सामाजिकता, उसका पारिस्थितिकी तंत्र, भू-गर्भ, भूगोल, गौण-विविधता को अच्छे से समझ कर उसके संरक्षण के लिए कागजों की फाईलों से बाहर निकल कर धरातल पर महत्वपूर्ण कदम उठाने की जरूरत है। हांलाकि कुछ स्थानीय लोगों व पर्यावरणविद कुछ संगठनों ने समय-समय में हिमालय की दुर्दशा के खिलाफ आवाज उठाई है। जिसमें उत्तराखण्ड की गौरा देवी, चण्डी प्रसाद भट्ट, सुन्दर लाल बहुगुणा, मेघा पाटेकर, किंकरी देवी जैसे पर्यावरण विदों ने देश ही नहीं विदेशों में भी हिमालय की दुर्दशा संरक्षण के लिए होने वाले खतरे को उजागर किया है। साथ ही हिमालय में संरक्षण के लिए भी उपाय बतायें है। लेकिन देश व विदेशों की सरकारें बड़े-बड़े सेमिनारों व गोष्ठीयों तथा पर्यावरण यात्राओं के नाम पर करोड़ों रू0 खर्च कर देते हैं। उसके बाद फाईलों में दस्तावेज कार्यालयों में धूल फाॅकते है। लेकिन धरातल पर कार्य नहीं होता है जिस कारण आज हिमालय घायल खड़ा है हिमालय की दुर्दशा के कारण पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग का शिकार है।

जलवायु परिवर्तन के भयानक स्वरूप के कारण विश्व की सरकारें अपनी जनता को प्राकृतिक प्रकोपों से बचने के लिए एक स्थान से दुसरे स्थान में विस्थापन के अलावा कुछ नही कर पा रही। आप कोई भी देश प्रकृति के प्रकोप से बचा नही है हर जगह उथल-पुथल मची है। जिसका कारण स्वंय मानस की एक तरफा विकास वादी सोच व विभिन्न देशों की विस्तारवादी आंकाक्षा प्रमुख कारण है।

विश्व को अगर प्राकृतिक आपदाओं से बचना है तो हिमालया सहित विभिन्न पर्वतमालाओं को स्थानीय लोगों, सामाजिक व राजनैतिक संगठनों व उद्योगपतियांे की मदद से इन पवर्तमालाओं को वृक्षों से आच्छादित करने की जरूरतों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके लिए विभिन्न सरकारों को यृद्ध स्तर पर योजना बना कर कार्य करने की जरूरत दिखने लगी है। जिसके लिए विश्व के राष्ट्रीय अध्यक्षों को मिल कर एक साथ कार्य करने की जरूरत है। ऐसे प्रयासों से घायल हिमालय व विश्व के अन्य पर्वत ग्लेशियरों के अस्तित्व को बचाया जा सके।

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