डा0 महेश भट्ट
हमारा देश कोरोना की दूसरी लहर से जूझ रहा है। हर बार की तरह हर तरफ कहा जा रहा है कि ऑक्सिजन की कमी, बेड्स की कमी, रेमडेसीवीर की कमी इत्यादि, ऐसा ही अन्य वक्त भी होता रहता है, जैसे जब ड़ेंगू होता है तो प्लेटलेट्स की कमी, तब भी बेड्स भर जाते हैं, और हम पैनिक मोड में होते हैं। मतलब जनस्वास्थ्य के संदर्भ में हमको यही सुनने को मिलेगा कमी, कमी, कमी। बिस्तर की कमी, दवाइयों की कमी, संसाधनों की कमी इत्यादि।
जनस्वास्थ्य एक ऐसा विषय है जो हमारे दैनंदिन जीवन के लगभग सभी आयामों को छूता है, लेकिन ये भी उतना ही सच है कि हम सब लोग (हमारी राजनीति, हमारे सिस्टम, हमारा समाज) इसकी घनघोर लापरवाही करते हैं और तभी चिल्लाते हैं जब कोई त्रासदी हमको सीधे असर करती है और उतनी ही द्रुतगति से उसे भुला भी दिया जाता है एक नई त्रासदी की दस्तक तक।
जनस्वास्थ्य (पब्लिक हेल्थ) में चिकित्सा ब्यवस्था एक महत्वपूर्ण अंग होते हुए भी उसकी सम्पूर्ण बहुआयामी संकल्पना का एक छोटा हिस्सा है, लेकिन हम ये कह सकते हैं कि सबसे ज्यादा दिखने वाला प्रत्यक्ष पहलू यही है और हम उसी को सम्पूर्ण समझने लगते हैं। लेकिन सच ये है कि हमारे सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक, और वैयक्तिक कार्यकलापों का असर सार्वजनिक स्वास्थ्य पर पड़ता है और इन सब के चरमराने से या इनके सही काम न करने के कारण अस्पतालों पर बोझ पड़ता है, हर तरह की कमी, अब्यवस्था, और भीड़ तंत्र अस्पतालों पर मौजूदा दौर के रूप में परिलक्षित होता है।
जहां विश्व के विकसित देशों में इसका प्रबंधन बिल्कुल वैज्ञानिक आधार पर होता है, अपने देश में इसकी बहुआयामी प्रकृति के कारण इसमें अफरातफरी, लालफीताशाही, राजनीति, आरोप-प्रत्यारोप का आलम बहुत जल्दी बन जाता है, इसमें राजनैतिक, ब्यवसायिक, आर्थिक, धार्मिक हितों की अधिकता की वजह से एक ऐसा सिस्टम तैयार होने लगता है जिसमे वास्तविक मुद्दे ओर वैज्ञानिक सोच गायब हो जाती है।
हमारे यहां हर तरह की त्रासदी में यही देखने को मिलता है जिसको कोरोना महामारी ने एकदम उघाड़ के इसके भयावह स्वरूप में हमारे सामने लाने का काम किया है। क्या हम ओर हमारी ब्यवस्थाएँ इससे कुछ सीख लेंगी, ये तो वक्त बताएगा, लेकिन हमारे जैसे विशाल जनता के देश को सार्वजनिक स्वास्थ्य पर आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत है, वरना सिर्फ बेड बढ़ाने से, आरोप-प्रत्यारोप से, भावुक दलीलों से, कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है, यही तो हम लोग अब तक करते आये हैं, और अपने आपको बेवकूफ बनाते आये हैं।
पब्लिक हेल्थ और हेल्थ एक दूसरे का पूरक होते हुये भी प्रबंधन की दृष्टि से एकदम अलग विधाएं हैं, लेकिन हमारे देश में दोनों को एक साथ हांकने की परंपरा बन गई है, अतः न हेल्थ सिस्टम्स का ठीक से प्रबंधन हो पा रहा है और न ही पब्लिक हेल्थ का, नतीजे हमारे सामने हैं। वैज्ञानिक पब्लिक हेल्थ प्रबंधन की समुचित शिक्षा का भी हमारे देश मे सर्वथा अभाव है, कुछ संस्थान इस पर काम कर रहे हैं लेकिन बिना किसी पॉलिसी के उनका उपयोग नहीं किया जाता या यों कहिए कि नोकरशाही और राजनीति उनको दरकिनार कर देती है।
जहां एक तरफ One Health या फिर Health in All Policies की बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने लगी है, हमको भी अपनी विशाल जनता के स्वास्थ्य के लिए लीक को पीटने के बजाय कुछ करना होगा। विकास, सुख, समृद्धि, अच्छा जीवन इत्यादि सब नारे एक अच्छी जनस्वास्थ्य ब्यवस्था के बगैर ढकोसला ही हैं, ये तो सीख कोरोना हमें दे ही रहा है, आगे भी कोई और देगा, क्योंकि यकीन मानिए कोरोना अंतिम महामारी नहीं है। अतः समय आ गया है कि हम अब स्वास्थ्य पर और जनस्वास्थ्य पर अपने अपने राजनैतिक पार्टियों को काम करने के लिये मजबूर करें।
(सर्जन, लेखक, सार्वजनिक स्वास्थ्य सलाहकार) एमडी एमएमबीएचएस ट्रस्ट एवं अध्यक्ष विज्ञान भारती, उत्तराखण्ड।